Saturday 31 October 2009

इक्कीसवीं सदी की औरत जन. १७ दिसंबर २०००

१५. इक्कीसवीं सदी की औरत
जन. १७ दिसंबर २०००

इक्कीसवीं सदी की औरत


नई शताब्दी और सहस्त्राब्दी की दहलीज पर खडे हम कह सकते हैं कि बीसवीं सदी की नारी चेतना और इक्कीसवीं सदी की नारी चेतना में बहुत अन्तर होगा ! बीसवीं सदी में नारी के अधिकारों की बातें हो रही थीं और अगला पर्व सक्षमता का होगा ! इसकी दिशा कैसी होनी चाहिए और उसमें हम क्या योगदान दे सकते हैं, यह मनन का विषय है !
भारत के परिप्रेक्ष्य में कहा जा सकता है कि बीसवीं सदी में नारी को कई अधिकार मिले ! उन्नीसवीं सदी में बंगाल से सती-प्रथा विदा हुई अर्थात् जीने का हक मिला ! लेकिन उसी समय भारत की आजाद साँसों को बचाने की अन्तिम लडाई में लक्ष्मीबाई को अंग्रेजों से मात खानी पडी ! फिर हमारी अर्थव्यवस्था के छिन्न-भीन्न होने का दौर चला ! हमारे कारीगर, हमारा आयुर्वेद, हमारा व्यापार, सब धीरे-धीरे ब्रिटिश राज में सिकुड रहे थे, लेकिन इसके साथ ही सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली खुल रही थी ! इस नई शिक्षा प्रणाली का उपयोग प्राय: हर समाज-सुधारक ने किया और इस तरह बीसवीं सदी में स्त्री शिक्षा का दौर चला ! विधवा विवाहों को मान्यता मिली ! बाल विवाह रूके ! एक तरह से कहा जा सकता है कि नारी को दुख की जिन्दगी को सुख में बदलकर जीने का और शिक्षा पाकर अपने रास्ते आप ढूँढने का अधिकार मिल गया है !
बीसवीं सदी में भारत को नारी चेतना को दो अलग-अलग कालखण्डों के सन्दर्भ में देखा जाना चाहीए ! पहली अर्धशती गुलामी में और दूसरी स्वतंत्रता के माहौल में ! पहले कालखंण्ड की तीन महत्त्मपूर्ण बातें गिनाई जा सकती हैं ! बडे पैमाने पर महिलाओं की शिक्षा का कार्यक्रम चला ! फिर आर्यसमाज, ब्रह्मसमाज जैसी संस्थाओं के कारण सामाजिक कार्यक्रमों में महिलाओं की सहभागिता बढी ! स्वतन्त्रता की लढाई में भी महिलाएँ क्रान्तिकारी और सत्याग्रही दोनों तरह से शरीक हुईं ! लेखन क्षेत्र में भी उनका आगे आना आरम्भ हुआ ! इस दौर में हम पंडिता रमाबाई, दुर्गा भाभी, कस्तूरबा गाँधी, सरोजिनी नायडू जैसे नाम गिना सकते हैं ! स्वतंत्रता के बाद अगले पचास वर्षों में कई क्षेत्रों में महिलाएँ आगे आई ! प्रधानमन्त्री का पद सँभालने वाली इन्दिरा गाँधी से लेकर ऐसे कई क्षेत्र और कई नाम गिनाए जा सकते हैं जहाँ महिलाओं को व्यक्तिगत रूप से अभूतपूर्व सफलता और कर्त्तव्यपूर्ति का सन्तोष मिला है !
लेकिन इसके बावजूद यह सच है कि कई क्षेत्रों में अब भी नारी अनपहतानी है ! गणित, भौतिक विज्ञान और दर्शन शास्त्र जैसे गहन माने जाने वाले विषयों में औरतों की दखल को हिकारत से देखा जाता है ! युद्ध, यु्द्धशास्त्र, सेना आदि में स्त्रियाँ बहुत कम हैं ! रणनीति, रिजर्व बैंक, रॉ या आईबी जैसी गुप्तचर एजेंसियों, व्यापार और उद्योग के क्षेत्र, बैंकिंग और यहाँ तक कि शतरंज के खेल में भी औरत को कम दर्जे का माना जाता है ! एक समान सूत्र उन सारे क्षेत्रों में है जहाँ बीसवीं सदी की महिला अभी तक नहीं पहुँच पाई है, और वह यह कि जहाँ हर पल सतर्कता रखकर रणनीति और व्यूहरचना बदलकर दिमागी लडाई लडने की बात है, वहाँ नारी आब भी अबला समझी जा रही है ! केवल राजनीतिक नेतृत्व का क्षेत्र अपवाद है जहाँ पग-पग पर लडाई लडते हुए काफी हद तक यह साबित और स्वीकृत करा लिया कि नारी भी राजनीति के क्षेत्र में पुरूषों जितनी ही सक्षम है !
कुछ ऐसे प्रसंगों का उल्लेख करना उचित होगा जो स्त्री चेतना को आगे ले जाने की दिशा या रास्ता दिखाते हैं ! जब मेरी नौकरी की पहली पोस्टिंग पुणे में थी तो एक महिला से परिचय हुआ जो पुणे में १९४० के पहले से दुपहिया स्कूटर चलाया करती थी ! आज भी कई ऐसे बडे शहर हैं -- गाँवों की बात तो छोड ही दीजिएजहाँ कोई महिला स्कूटर चलाने लगे तो वह एक खबर बन जाती है ! लेकिन पुणे में स्कूटर चलाने वाली जनसंख्या में आज आधे से ज्यादा महिलाएँ निकल आएँगी ! एक और घटना तमिलनाडु की है ! वहाँ एक महिला कलेक्टर ने तय किया कि ऑफिस में काम करने वाली तृतीय और चतुर्थ श्रेणी की सभी महिलाओँ को साइकि दी जाएगी ! इसके बाद उन महिला कर्मचारियों कास जो आत्मविश्वास बढा उससे सभी दंग रह गए !
इस लेखिका ने एक बार देवदासियों के आर्थिक पुनर्वास का एक कार्यक्रम आरम्भ किया ! वे काम तो सीख रही थीं, लेकिन बहुत अधिक उल्लास था ! फिर उनके लिए व्यक्तित्व विकास कार्यक्रम चलाने की योजना बनी ! कर्यक्रम का नियोजन करनेवाली एक शिक्षाविद् महिला थीं ! उन्होंने केवल चार कार्यक्रमों पर जोर दिया -- सामूहिक गीत गाना, मार्च पास्ट और झण्डे को सलामी देना, साइकिल चलाना और फोटोग्राफी ! इस कार्यक्रम का परिणाम जादुई रहा ! व्यक्तिमत्व विकास की ही एक मिसाल इला भट्ट की संस्था 'सेवा' है ! इसकी महिलाएँ कम पढी लिखी होने के बावजूद वीडियो फिल्में बनाना सीख चुकी हैं ! अपना विषय खुद चुनती हैं ! खुद बजट बनाती हैं, खुद स्क्रिप्ट लिखती हैं और शूटिंग करती हैं ! इसी तरह महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में एक बार स्त्रियों को मिस्त्री बनने को मिस्त्री बनने का प्रशिक्षण दिया गया !तो उन्होंने माँग की -- हमें मजदूर नहीं मालिक बनना है ! फिर अगले छह महीने उन्हें सिखाया गया कि ग्राम पंचायतों के छोटे-छोटे कामों के ठेके पाने के लिए टेंडर कैसे भरे जाते हैं, खर्चे का और लगने वाले सामान का हिसाब कैसे किया जाता है, मजदूर कैसे लगाए जाते हैं, मजदूरी कैसे तय होती है, मजदूरों से कैसे काम करवाया जाता है और उनके काम का निरीक्षन कैसे किया जाता है ! ग्राम पंचायतों में महिला आरक्षण के बाद ऐसी घटनाएँ पढने-सुनने में आई कि कैसे महिला सरपंचों को भ्रष्टाचार के घोटाले में फँसाकर उन्हें अपमानित किया गया, पन्द्रह अगस्त पर उन्हें ध्वजारोहण का हक नहीं दिया गया, इत्यादि ! लेकिन दूसरी तरफ ऐसी भी घटनाएँ सामने आई हैं जहाँ महिला सरपंचों ने अच्छे काम कर दिखाए, खासकर शिक्षा और जल आपूर्ति के क्षेत्र में !

महाराष्ट्र में इन्जीनियरिंग कॉलेजों की भरमार होने के कारण बाहरी इलाकों से कई लडके वहाँ दाखिला लेते हैं ! कॉलेजों में कई छात्राएँ होती हैं ! इस शहर में यातायात नियंत्रित करने वाली छात्राएँ या स्कूचर चलाने वाली महिलाएँ अक्सर दिखाती हैं ! उनके साथ कोई दुर्व्यवहार नहीं करता ! ऐसे ही बाहरी छात्रों के एक समूह से पूछा गया कि यदि तुम्हें वापस अपने शहर में जाकर स्कूटर तलाने वाली या ट्रैफिक कंट्रोल करने वाली महिलाएँ-छात्राएँ दिखें और दूसरे छात्र उन पर फिकरे कस रहे हों तो तुम्हारी प्रतिक्रिया क्या होगी ! इसका उत्तर था कि शायद वे भी उन फिकरे कसने वाले लडकों में शामील हो जाएँगे ! अर्थात पुणे जैसे शहर को देखकर भी उनकी मानसिकता नहीं बदली ! इसके विपरीत एक युवती पुणे से मथुरा अकेली यात्रा कर रही थी ! वह पुणे की किसी कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर कम्पनी में काम करती है और मथुरा रिफाइनरी में नया सॉफ्टवेयर लगवाने जा रही है ! उम्र कोई बाईस-तेईस वर्ष थी ! यह पूछने पर कि ट्रेन तो रात में मथुरा पहुँचेगी, तुम अकेली लडकी कैसे मैनेज करोगी, उसका उत्तर था : कम्पनी गाडी भेजेगी, मेरे पास सबके फोन नम्बर इत्यादि हैं, मैनेज कर लेना कौन-सी बडी बात है? एक तरफ यह आत्मविश्वास है तो दूसरी तरफ बिहार, उत्तर प्रदेश की यह मानसिकता भी है कि महाराष्ट्र में पढाई कर वहाँ के मुक्त वातावरण में लडकियों की सक्षमता देखने के बाद भी जब वे अपने शहरों में वापस जाएँगे तो वहाँ लडकियों के लिए सुरक्षित परिवेश निर्माण करने की बजाय शायद वे अपनी दकियानूसी मानसिकता ही चलाएँगे !

बहरहाल, इन प्रसंगों पर सोचने से कुछ दिशा-निर्देश अवश्य होता है ! नारी चेतना के विकास के लिए, आत्मविश्वास और ओजस्विता के लिए आज स्कूल-कॉलेजों में दी जाने वाली शिक्षा शायद अपर्याप्त है ! उसकी जगह आवश्यकता है कर दिखाने के अवसर की--चाहे वह साइकिल या स्कूटर सवारी हो, ठेकेदारी हो या दूर-दराज की कम्पनी की कंसल्टेंसी हो ! गतिशीलता और देशाटन, मिल्कियत और निर्णय का अधिकार जैसी कुछ बातें हैं जिन्हें पाकर नारी चेतना अधिक प्रखर हो सकेगी, केवल स्कूल-कॉलेज की शिक्षा से नहीं ! हाँ, इस शिक्षा प्रणाली को बदलकर इसे अधिक व्यावहारिक बनाया जाए तो कुछ अच्छे नतीजे मिल सकते हैं ! बीसवीं सदी की भारतीय नारी अर्थशास्त्र या वित्तीय मामलों में अपनी क्षमता सिद्ध नहीं कर पाई ! अगली सदी में उसे इसके लिए तैयार रहना होगा ! मैनेजर, टीम लीडर, कोऑर्डिनेटर की भूमिकाओं में महिलाओं को अपनी पहचान बनानी होगी ! परमाणु या अन्तरिक्ष विज्ञान, समुद्र विज्ञान, एक्स्प्लोरेशन के क्षेत्र में, औधोगिक और व्यापारिक संस्थाओं के मुखिया के रूप में भी महिलाएँ आएँगी उन्हें आना होगा !
पर तब भी कुछ सवाल रह जाते हैं ! क्या इक्कीसवीं सदी की नारी दार्शनिक भी हो पाएगी ! बीसवीं सदी में महात्मा गाँधी जैसा दीर्शनिक हमारे देश में पैदा हुआ ! उससे पहले की कई सदियों में कई-कई चिंतक भारत में पैदा हुए ! लेकिन किसी महिला का नाम इस श्रेणी में नहीं आया है और तब तक नहीं पाएगा जब तक चिन्तन की आदत प्रयत्नपूर्वक नहीं डाली जाएगी ! दूसरा प्रश्न है कि परिवार नामक संस्था का क्या होगा ! कई लोग इस बात से दुखी हैं कि नारी चेतना जागने से परिवार संस्था को खतरा पहुँच रहा है ! गुण गाए जा रहे हैं कि कैसे नारी का इसी संस्था के नियमों के अन्तर्गत रहना उचित है ! एक वृद्ध सज्जन से राय-मशविरा करने अधिकारियों का ग्रुप पहुँचा ! अधिकारीगण अलग-अलग क्षेत्रों से थे और उनमें एक महिला अधिकारी भी थीं जो वरिष्ठता में उनसे ऊपर थीं ! चाय लाकर रखी गई ! चर्चा चल रही थी ! यजमान ने अपने सेवक को बुलाकर सबके लिए चाय पकोडे परोसने को कहा ! एक ने सेवक से कहा, तुम जाओ हम ले लेंगे ! फिर उसके जाने पर वृद्ध सज्जन से कहने लगे--यहाँ ये बैठी हैं, महिला हैं, चाय इत्यादि सर्व करना तो इनका काम है, ये कर लेंगी ! महिला अधिकारी शिष्टता से कन्नी काट गईं जो मुझे अच्छा लगा ! उक्त महिला की जगह उतनी ही वरिष्ठता का कोई पुरूष अधिकारी होता तो वह व्यक्ति उसकी मेहरबानी पाने के लिए खुद उसे चाय पेश करता !
परिवार का क्या होगा? इस प्रश्न का उत्तर इस घटना के सन्दर्भ में खोजना पडेगा ! परिवार संस्था बेशक सुविधा के लिए बनी है ! इस संस्था में कमजोर और बीमार लोगों की-- जैसे बच्चे और वृद्ध व्यक्तियों की देखभाल की व्यवस्था है, एक-दूसरे से भावनात्मक सहयोग पाने और देने की व्यवस्था है ! भूत, वर्तमान और भविष्य की व्यवस्था है ! लेकिन क्या यह सब केवल पुरूष वर्ग के लिए है-- और वह भी नारी के परिश्रम, समर्पण और खुद को दबाए रखने की कीमत पर? यदि परिवार का प्रयोजन यही होता तो नारी इसे कभी स्वीकार नहीं करती और आगे करेगी ! वर्तमान परिवेश में नारी की चेतना और बुद्धि विकसित हुई है तो वह अपना अधिकार माँग रही है, पर उसके अधिकार को स्वीकार करने और उसे न्यायोचित मानने की संवेदनशीलता पुरूष वर्ग में बडी मन्द गति से रही है ! अत: परिवार में संघर्ष होना अवश्यंभावी है ! एक वर्ग की चेतना जाग रही है ! दूसरे की संवेदनशीलता अभी सो रही है ! संघर्ष की जड यहीं है ! पर इसमें दोष उस नारी का नहीं जिसकी चेतना जाग रही है, बल्कि उस पुरूष का है जिसकी संवेदना अभी सो रही है ! इस संवेदनहीनता का दूसरा रूप है--नारी पर अत्याच्यार !
तीसरा प्रश्न यह है कि इक्कीसवीं सदी में भूमंडलीकरण का और भी बोलबाला होगा ! सूचना तकनीक के कारण सूचनाएँ और कल्पनाएँ तेजी से इधर-से-उधर पहुँचेंगी ! बायो-टेक्नोलॉजी के विस्तार के साथ पैदावार के तरीके बदलेंगे, चाहे वह अन्न की पैदावार हो या मनुष्य की ! इन सभी में भारत क्या भूमिका निभाएगा ! क्या दिशा निर्देशन ती राय केवल दिशा या दीशा-ग्रहण की? इस भूमिका को कौन तय करेगा और निभायगा? देश की आधी आबादी वाली महिलाएँ-- जिनमें से आधी आज भी अशिक्षित या अर्धशिक्षित हैं और अगले पचास वर्षों में भी शायद वैसी ही रहें, वे महिलाएँ क्या भूमिका निभाएँगी?

(जनसत्ता,१७ दिसंबर,२०००

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